Wednesday 5 October 2016

कावेरी जल विवाद


जल का महत्व जीवन के लिए इतना अधिक है कि, एक राष्ट्र या प्रांत के  अस्तित्व की कल्पना जल संसाधानो के बिना की ही नही जा सकती! जल वैसे तो जीवनदाई तत्वो मे गिना जाता है, पर पिछले दिनो के घटनक्रमो से हताशा भाव की उत्पत्ति होना स्वाभाविक है| वैसे तो जल के अभाव की समस्या से संपूर्ण विश्व झूज रहा है| जल संसाधनो की असमान प्राकृतिक वितरण से उपजी समस्याएं संपूर्ण विश्व पटल पर दिखाई देती है| सूखे जैसी समस्यायें भी विश्व के विभिन्न भागो मे आम है, पर क्या इन समस्याओ को लेकर विवादास्पद  बयान देना, उपद्रव फैलाना व सार्वजनिक संपत्ति का नुकसान करना मात्र भर इसका उपाय है? पिछले दिनो के घटनक्रम मे चर्चा मे रहे  कावेरी जल विवाद से तो शयद हमारी इसी मानसिकता का निष्कर्ष सामने आता है…
 
कावेरी विवाद पिछले कई दशको मे कई बार सामने आया है, विवाद का स्तर पिछले दिनो इतना अधिक बढ़ गया की इसने दो भाषा  वाले प्रदेशो के बीच की दूरी ओर बढ़ा दी| संपत्ति के नुकसान की तुलना से  कहीं अधिक, इसने भारतीय अखंडता व एकता का खंडन चित्रित किया है| विवादस्पद होने से  कहीं ज़्यादा  हमारे लिए यह शर्मनाक है की भारत जैसे राष्ट्र के दो राज्यों के बीच इस तरह लड़ाई हो, जैसे वे दो अलग देश हैं|  राजनीतिक नेतृत्व इस पूरे मामले पर मूक दर्शक सा बना हुआ है| कुछ राजनैतिक गलियारो से कुछ सकारात्मकता के विचार आए भी पर  शायद ही उनसे नागरिको पर असर दिखाई दिया हो|  इस विवाद से कई बड़े शहरो बेंगलुरू समेत मांड्या, मैसूर, चित्रदुर्गा और धारवाड़ जिलों में हिंसात्मक प्रदर्शन हुआ जिसमे सार्वजनिक व लोक  संपत्तियो को छतिग्रस्त करने के साथ साथ वाहनो को जलाया गया| हेगानहल्ली इलाके में पुलिस फायरिंग से एक नागरिक की मौत हो गई| दूसरी ओर तमिलनाडु मे भी 30 बसों और ट्रकों को आग के हवाले कर दिया गया | तमिल नाडु मे कन्नड़ समुदाय के लोगो पर हमले भी किए गये, हालाकि राजनैतिक पक्ष ने इस बात का खंडन किया|  जयललिता जी ने मुख्यमंत्री भूमिका से हालत को काबू करने के लिए आवश्यक कार्यवाही की सुनिश्चितता को बढ़ाया| उन्होंने समस्या को उस हद तक जाने के पहले ही संभाल लिया कि यह अंधाधुंध हिंसा तक पंहुच जाए|  नदी जल संबंधी सभी अंतराज्जीय समझौते को रद्द करने के कर्नाटक के एक तरफा फैसले ने ऐसी स्थिति पैदा कर दी है जिसका अनुभव हमारे देश ने पहले कभी नहीं किया था|
तथ्यो के अनुसार माननीय उच्चतम न्यायलय ने 20 सितंबर तक कर्नाटक से तमिलनाडु के लिए 15,000 क्यूसेक पानी छोड़ने का आदेश दिया था, और इसके बाद से ही कर्नाटक में हिंसक घटनाओं की शुरुआत हो गयी|  बाद में 12 हज़ार क्यूसेक पानी छोड़ने की बात भी कही गयी, किन्तु हिंसक स्थितियों पर कुछ खास फर्क नहीं पड़ा|  अगर इस कावेरी नदी की भौगोलिक स्थितियों की बात करें तो पश्चिमी घाट के ब्रह्मगिरी पर्वत से निकलकर कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल व पुडुचेरी में कोई आठ सौ किलोमीटर की यात्रा करके बंगाल की खाड़ी में गिरने वाली कावेरी नदी के पानी के बंटवारे को लेकर अंग्रेजों के जमाने से ही विवाद मौजूद है|  ऐतिहासिक दस्तावेजों पर दृष्टि डालने से ज्ञात होता है कि वर्ष 1924 में उस समय के मैसूर और मद्रास राज्य के रजवाड़े तक आमने सामने आ गए थे, तो अंग्रेजी हुक्मरानों ने दोनों के बीच एक समझौता करा दिया था, जिसमें मैसूर को कावेरी जल का प्रथम, जबकि मद्रास को दूसरा लाभार्थी माना गया था|  कालांतर में इस विवाद ने और भी उग्र रूप में तब आकर लिया जब आजाद भारत में 1972 में कांग्रेस की आयरन-लेडी इंदिरा गांधी की सरकार थी|  बड़ी मशक्कत के बाद उन्होंने इससे जुड़े चारों राज्यों-कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल और पुडुचेरी के बीच एक समझौता कराया था| इस समझौते का आधार यह था कि नदी जिस राज्य के भू-भाग से जितनी ज्यादा गुजरती है, पानी में भी उसका उतना ही हिस्सा होगा|  देखा जाए तो यह एक संतुलित संधि थी, किन्तु कर्नाटक ने इस संधि की अवहेलना करनी शुरू कर दी थी और फिर इन विवादों के सन्दर्भ में, 1986 में तमिलनाडु ने तत्कालीन केंद्र सरकार से विवाद के निपटारे के लिए एक अलग से न्यायाधिकरण बनाने की मांग की, जो चार वर्ष बाद 1990 में पूरी हुई|  न्याय करने की कोशिश फिर हुई, जब स्थापित न्यायाधिकरण ने तय कर दिया कि कर्नाटक तमिलनाडु को कितना पानी हर साल देगा और पानी कब-कब छोड़ा जाएगा|  दुर्भाग्य से इस पर न तो कर्नाटक ने ठीक से अमल किया और ना ही तमिलनाडु ने और फिर यह मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा|  सवाल वही है कि अगर भारतीय राज्य और उसके नागरिक ही शीर्ष अदालती आदेश का सम्मान  नहीं करेंगे तो करेगा कौन? वह भी तब जब कोर्ट का निर्णय बेहद व्यवहारिक प्रतीत होता है|  विवाद होने पर सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में संशोधन भी किया, किन्तु नतीजा वही ढाक के तीन पात ही रहा|  आखिर वह आंदोलनकारी आसमान से आकर सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवहेलना तो कर नहीं रहे हैं, बल्कि इसके पीछे साफ़ तौर पर राजनीतिक पार्टियां लाभ-हानि की दृष्टि से राजनीति करती प्रतीत हो रही हैं|  बेहद शर्मनाक है कि भारत में सबसे सम्मानित और विकसित शहर के तौर पर मशहूर, भारत के आईटी हब बेंगलुरू की प्रतिष्ठा का भी ध्यान नहीं किया गया|  साफ़ है कि वहां पर जो हिंसा हुई है, उसके कारण वहां काम कर रही देशी-विदेशी कंपनियों को दुबारा सोचने पर मजबूर होना पड़ा होगा|  सहज ही कल्पना की जा सकती है कि अगर किसी कंपनी का वहां एक्सपेंशन का प्लान होगा तो वह उसे टाल भी सकती है|  पॉपुलर सोशल मीडिया कंपनी ट्विटर ने अपने 'बेंगलुरु ऑफिस' से कामकाज समेटने की बात भी कही है|  हालाँकि, सीधे तौर पर ट्विटर और कावेरी जल-विवाद  का कोई अन्तर्सम्बन्ध नहीं है किन्तु आने वाले दिनों में वहां के नागरिकों को इस बाबत सोचने को तैयार रहना ही होगा|  

अब प्रश्न यह उठता है कि जीवन के लिए मूलभूत जल का मूल्य अब जीवन से भी बढ़ गया है? क्या हमारी भौगौलिक व सामुदायिक छवि इतनी अधिक प्रभावशाली हो गई है कि हम अपने ही देश के पड़ोसी समुदाय के लोगो को केवल इसलिए हिंसात्मक तरीके से प्रताड़ित करें? क्या हमारी समस्याओं का समाधान महात्मा गाँधी के उन सिद्धांतो मे नही ढूँढा जा सकता जो अहिंसा के मूल पत्थर पर टिके हैं?  और ये ज़िम्मेदारी तो राज्य सरकारो की बनती है कि वो क़ानून व्यवस्था को सुचारु रूप से सशक्त करें ताकि जब भी ऐसे विपरीत कठिनाई के बादल आए तब हमारी आम जनता को अधिक छाति ना देखनी पड़े| हम नागरिको व राजनैतिक नेताओ को यह सोचना होगा की चुनावी फ़ायदे के बजाय समस्याओं के उन समाधान की ओर केंद्रित हों जिसमे दोनो पक्षो की ज़रूरतों को ध्यान में रखा गया जाए | हमारी न्याय व्यवस्था के उच्चतम न्यायालय के आदेशो की गरिमा को बनाए रखना हमारे उन्हे स्वीकार करने मे ही सम्मिलित है, साथ ही यह हमारा कर्तव्य है की समाज के उन समूहो जो न्यायिक फ़ैसलो के खिलाफ हिंसात्मक शड्यंत्रो की रचना करते है, उन्हे उन्मूलित लिया जाए|  ऐसे विवाद नदी जोड़ो परियोजना के कई स्तर पर देखने को मिले हैं, पर हमारी सरकारें इन विषयों मे अधिक रूचि नही लेती प्रतीत होती है|  वही दूसरी ओर  के सम्मिलित होने से भ्रष्टाचार की संभावनाए बढ़ने के कारण जल पुरुष राजेंद्र सिंह जैसे लोग 'नदी जोड़ो परियोजना' का विरोध कर रहे हैं, जिनसे वर्तमान सरकार को सामंजस्य बिठाने की आवश्यकता है|  स्टाकहोम प्राइज से सम्मानित राजेंद्र सिंह एवं दूसरे कई विशेषज्ञ इसके बजाय समाज से नदियों को जोड़ने एवं तालाब इत्यादि विकल्पों को सुझा रहे हैं| अब यह  भार हमारी सरकारो के उपर जाता  है  कि वो सुनिश्चित  करें कि भविष्य मे नीतियो मे विवादास्पद मोड़ ना आए ताकि भारत को फिर से कावेरी जल आपदा का सामना न करना पडे| निष्कर्ष शायद इस प्रश्न मे चित्रित है की जल की शीतलता को पाने के लिए यदि हम समाज मे अधिक भिन्नताओ के बीज बोएंगे तो क्या आने वाली पीढ़ी के लिए इस जल की शीतलता का कोई मूल्य बच पाएगा?

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