Thursday 6 February 2014

परस्तार



वो जो कहलाता था दीवाना तेरा
वो जिसे हिफ्ज था अफसाना तेरा
जिसकी दीवारों पे आवेजा थी
तस्वीरे तेरी
वो जो दोहराता था
तकरीरे तेरी
वो जो खुश था तेरी खुशियों से
तेरे गम से उदास
दूर रहके जो समझता था
वो है तेरे पास
वो जिसे सजदा तुझे करने से
इनकार न था
उसको दरअसल कभी तुझसे
कोई प्यार न था
उसकी मुश्किल थी
कि दुश्वार थे उसके रास्ते
जिनपे बेखोफ-खतर
घूमते रहजन थे
सदा उसकी अना की दरपे
उसने घबराके
सब अपनी अना की दौलत
तेरी तहवील में रखवा दी थी
अपनी जिल्लत को वो दुनिया की नजर
और अपनी भी निघहो से छिपाने के लिए
कामयाबी को तेरी
तेरी फुतुहात
तेरी इज्ज़त को
वो तेरी नाम तेरी शोहरत को
अपने होने का सबब जनता था
है वजूद उसका जुदा तुझसे
ये कब मानता था
वो मगर
पुर्खतर रास्तो से आज निकल आया है
वक़्त ने तेरे बराबर न सही
कुछ ना कुछ अपना करम उसपे भी फ़रमाया है
अब उसे तेरी जरूरत ही नही
जिसका दवा था कभी
अब वो अकीगत ही नहीं
तेरी तहवील में रखी थी कल
उसने अना
आज वो मांग रहा है वापस
बात इतनी सी है
ऐ साहिबे-नामो -शोहरत
जिनको कल
तेरे खुदा होने से इनकार न था
वो कभी तेरा परस्तार न था

ये कविता उसे समर्पित है जिसने मुझे और काव्य को मिलवाया | जिसने मुझे खुद के लिए कुछ करने की प्रेरणा दी |


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